Friday, November 27, 2009

ये माताएँ कहाँ करे गुहार

दैहिक और मानसिक शोषण, अभिशप्त मातृत्व और भूख एवं लाचारी पर लिखी गई इस पुस्तक के माध्यम से एक ज्वलंत समस्या के प्रति देश के लोकमानस का ध्यान आकर्षित करवाने की कोशिश की गई है। किताब का नाम है – ये माताएँ अनब्याही
इस किताब में शामिल कुछ अध्यायों के नाम इस प्रकार हैं – अविवाहित माताओं की ओर से, उन इलाकों के बारे में, वास्तविक यथार्थ से ऐसे हुए रू-ब-रू, नागदंश से कहीं बड़ी पीड़ा, पिता से गए और जिंदगी से भी, कियावती एक घोषित गाँव-वधू, हेडमास्टर की हरमजदगी, जवानी आजमाने के काम आती देह, एक किलो गोश्त से भी सस्ती, फ्रॉक पहनने की उम्र में माँ बनने की उलझन, पाप-पुण्य के पसोपेश में पद्मा का प्रेम, जीजा ने भरी जिन्दगी में जलालत, दीदी तेरा देवर दगाबाज निकला, आदिवासी देह होने की पीड़ा, जिन्दगी की शाम की बाट जोहती सन्ध्या, गुनाहों की देवी कृष्णा टांडी, दलीलों की पेंच में फंसी प्रेम की दास्ताँ, पैसेवाले ने बनाया अनब्याही माँ, इश्क की दास्तां और जवानी की ज़ुबाँ,मतलब धोखा, माँ के प्रेमी ने बनाया माँ, पालतू पशुओं के लिए बन गई माँ, नग्न उत्सव के भयावह सच...........
इस किताब के लेखक हैं- डॉ.सुनीता शर्मा, अमरेन्द्र किशोर पेपरबैक एडिशन की कीमत 125 रुपये है।

Sunday, November 15, 2009

भारत की गंदगी को साफ करने के लिए आपको यथासंभव भारतीय झाड़ू का ही उपयोग करना चाहिए – गुणाकर मुळे

हिन्दी और अंग्रेजी में विज्ञान लेखन को लोकप्रिय बनाने वाले गुणाकर मुळे का 13 अक्टूबर को निधन हो गया। वह 74 वर्ष के थे। वे पिछले डेढ़-दो वर्षों से बीमार थे। उन्हें मांसपेशियों की एक दुर्लभ जेनेटिक बीमारी हो गई थी, जिससे उनका चलना-फिरना बन्द हो गया था।
1935 में विदर्भ के अमरावती जिले के सिंदी बुजुरुक गाँव में जन्मे मुळे की शुरुआती पढ़ाई गाँव के मराठी माध्यम में हुई। उन्होंने स्नातक और स्नातकोत्तर (गणित) की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की। स्वतंत्र लेखन करने वाले गुणाकर मुळे ने 1958 से विज्ञान, विज्ञान का इतिहास, पुरातत्व, पुरालिपिशास्त्र, मुद्राशास्त्र और भारतीय इतिहास और संस्कृति से सम्बन्धित विषयों पर लेखन किया है। गुणाकर मुळे ने 35 पुस्तकों के अलावा हिन्दी में 3000 से अधिक लेख लिखे। जबकि अँग्रेजी में उनके 250 लेख प्र्काशित हो चुके हैं।
राहुल सांस्कृत्यायन से प्रभावित गुणाकर मुळे की लेखनी सही मायने में वैज्ञानिक विचारधारा प्रचारित करने वाली रही है। गुणाकर मुळे की पहचान विज्ञान के जटिल रहस्यों को सरलता से पहुँचाने साथ जटिलता के बहाने पनप रहे अंधविश्वासों को दूर करने में रही है। मुळे जी ने एक जगह लिखा है – “भारत की गंदगी को साफ करने के लिए आपको यथासंभव भारतीय झाड़ू का ही उपयोग करना चाहिए। प्राचीन भारतीय साहित्य में बुद्धिवादी चिंतन का विशाल भण्डार मौजूद है। आवश्यकता है तो सिर्फ उसे खोजने और उसका समुचित उपयोग करने का।“
एक दूसरी जगह वह लिखते हैं – “प्रचार किया जाता है कि प्राचीन भारतीय चिंतन परम्परा प्रमुखत: आध्यात्मवादी रही है। आज कई टी.वी. चैनलों से प्रसारित होने वाले धार्मिक कार्यक्रम इसी भ्रामक धारणा को फैलाने में जुटे हुए हैं लेकिन सच्चाई यह है कि ठेठ वैदिक काल से भारत में भौतिकवादी और बुद्धिवादी चिंतन की प्रबल धारा सतत प्रभावित होती रही है।“ - अनन्या ओझा –साभार-जनसमाचार
गुणाकर मुळे का प्रमुख साहित्य
ब्रह्मांड परिचय, संसार के महान गणितज्ञ, आकाश दर्शन, सूर्य, सौर मण्डल, नक्षत्र लोक, अंतरिक्ष यात्रा, भारतीय विग़ान की कहानी, भारतीय लिपियों की कहानी, भारतीय अंकपद्धति की कहानी, अंकों की कहानी, अक्षरों की कहानी, ज़्यामिति की कहानी, महान वैज्ञानिक, आधुनिक भारत के महान वैज्ञानिक, प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, पास्कल, केपलर, आर्किमीडीज़, मेंडेलिफ, गणित की पहेलियां, आपेक्षिकता-सिद्धांत क्या है(मूल लेखक-लेव लांदाऊ,यूरी रुमेर –अनुवाद/परिशिष्ट-गुणाकर मुळे)

Sunday, November 08, 2009

कथन का साहित्य और सामाजिक आन्दोलन पर विशेष सामग्री

कथन का 64वाँ अंक उपलब्ध है।
संपादकीय यह कैसा नवलेखन और कैसा जन-आन्दोलन ? पर अवश्य गौर करें।
हमारी विरासत के अंतर्गत – शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का लेख : स्वराज साधना में नारी।
राजेश जोशी द्वारा चयनित एवं टिप्पणी के साथ – लीलाधर मंडलोई की कविताएं।
स्मृति:हबीब तनवीर के अंतर्गत: संतोष चौबे की कहानी – महान कलाकार।
विजेन्द्र की कविताएं। अफगानी कवियत्री नादिया अंजुमन की कविताएं – यादवेन्द्र द्वारा अनुदित- परिचय के साथ। साहित्य और सामाजिक आन्दोलन पर रमेश उपाध्याय का महत्वपूर्ण आलेख। साहित्यिक आन्दोलन के भविष्य पर शंभुनाथ का आलेख। हिन्दी सिनेमा और सामाजिक आन्दोलन पर जवरीमल्ल पारख का आलेख।
इस अंक की कीमत पच्चीस रुपये है।

नया ज्ञानोदय-प्रेम महाविशेषांक-5

इस अंक पर कुछ कहा जाय, इसके पहले पाठकों को यह बता देना जरूरी है कि अब तक प्रेम महाविशेषांक-1 के पांच संस्करण, प्रेम महाविशेषांक-2 के तीन संस्करण, प्रेम महाविशेषांक-3 के दो संस्करण निकल चुके हैं। पाठकों का रोना रोने वाले प्रकाशकों-संपादकों-लेखकों से निवेदन है कि वे इस बात पर गौर करें कि हमसे कहाँ चूक हो रही है? यह महज प्रेम का मसला नही है बल्कि सामग्री की पठनीयता का प्रश्न है।
प्रेम महाविशेषांक का 5 वाँ अंक प्रेम के लोकपक्ष पर केन्द्रित है। इस अंक के महत्वपूर्ण आकर्षण हैं- लैला मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं फरहाद, सोहनी महींवाल, सस्सी पुन्न, फूलझरी रानी, चम्पा रानी, सारंगा सदावृक्ष, छैला सन्दु जैसी लोककथाओं का आज के युवा लेखकों द्वारा पुनर्लेखन। इसके अलावा लोकरंग में रंगी चार प्रेमकथाएँ- विजयदान देथा का अनदेखा अंतस(जसमा ओडन), ममता कालिया का निर्मोही, पंकज सुबीर का महुआ घटवारिन तथा रांगेय राघव का नल दमयंती। अन्य महत्वपूर्ण सामग्री हैं- सुशील कुमार फुल्ल का लेख:क्या प्रेमकथाएँ प्रकारांतर से कामकथाएँ ही हैं? / अनुज की पंजाब की प्रेमकहानियाँ / वीर भारत तलवार की आदिवासी समाज में प्रेम / परदेशीराम वर्मा की लोरिक चन्दा और अन्य प्रेम कथाएँ / भारती राणे का प्रणयसिक्त मांडू दुर्ग – बाज बहादुर और रूपमती / देवव्रत जोशी का फकीर का हुस्न, सिन्दूर की शुरुआत / शरद पगारे का औरंगजेब की प्रेमिका / अरविन्द मिश्र का लोकगीतों में पति-पत्नी /ज्ञान चतुर्वेदी का पहला-पहला प्यार............और भी बहुत कुछ।
मित्रों! निवेदन है कि यह अंक अवश्य पढ़ें। अंक मिलने में कोई दिक्कत हो तो हमें
hindikitab@gmail.com पर लिखें या फोन नं. 09324618055 पर कहें।
इस अंक की कीमत 30 रुपये है।

Thursday, November 05, 2009

भारतीय स्त्री का प्रजनन और यौन जीवन

कोख से चिता तक, भारतीय स्त्री के प्रजनन और यौन जीवन पर आधारित मृणाल पाण्डे की किताब – ओ उब्बीरी...
भारतीय समाज के विकास में दिलचस्पी रखने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए एक जरूरी किताब।
”अपने अंतर्मन में हर स्त्री को अपने ऊपर सामान्यता का ठप्पा लगना खटकता है। उससे भले ही उसकी इच्छा-अनिच्छा के बारे में बहुत कम पूछा जाता रहा हो, जब वह अपनी जिन्दगी के बाबत बतियाने पर आती है, तो वह उसे अपनी ही तरह से व्याख्यायित करती है। उसे अपने भीतर की दुनिया खंगालने और उसकी अभिव्यक्ति के लिये सही लफ्ज़ ढूँढ़ पाने में कुछ वक्त भले ही लगे पर एक बार जब वह कहने पर आती है तो लगता है- एक बाँध भरभराकर टूट गया है। कभी मात्र चितवन से तो कभी पूरे शरीर की भंगिमाओं से वह अपने जीवन की अन्दरूनी विडम्बनाओं और अपनी नैतिक दुविधाओं को अंतत: साकार कर देती है।
और जब कभी ऐसा होता है तो हम पाते है कि एक मामुली सी औरत की आत्मकथा भी अपने आप में एक पूरे जाति, एक पूरे सभ्यता के गिर्द मँडराते बेहिसाब अनुभवों और स्मृतियों का खजाना समेटे हुए एक दुर्लभ महाकाव्य हो सकती है।“ (उपरोक्त पुस्तक का एक अंश)
इस किताब के पेपरबैक एडिशन की कीमत 125 रुपये है।

Wednesday, November 04, 2009

यदि आप ने यह किताब नहीं पढ़ी है तो आप एक महान अनुभव से वंचित हैं

सन 1956 में तिब्बत का दरवाजा विदेशियों के लिए लगभग बन्द हो चुका था और राजनैतिक कारणों से भारत के साथ तिब्बत का सम्पर्क भी लगभग टूट चुका था। उन्हीं दिनों बिना किसी तैयारी के, विमल दे घर से भागा और नेपाली तीर्थयात्रियों के एक दल में सम्मिलित हो ल्हासा तक जा पहुँचा। उस समय उनकी उम्र मात्र पन्द्रह वर्ष थी। ल्हासा में उसने तीर्थयात्रियों का दल छोड़ा, और वहाँ से अकेले ही कैलास ख़ंड की ओर कूच कर गया।
किताब का नाम है- “महातीर्थ के अंतिम यात्री” और इसके लेखक हैं- बिमल दे
बिमल दे ने इस किताब को एक भिखमंगे की डायरी कहा है। उनके शब्दों में-“एक पुरानी साइकिल और जेब में मात्र अठारह रुपये लेकर मैं दुनिया की सैर करने निकला था। कलकत्ता से भू-पर्यटन के लिये निकला था सन 1967 में और एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका व आस्ट्रेलिया घूमकर स्वदेश लौटा था सन 1972 में। मित्र, संबंधी, रेडियो व प्रेस ने मुझे शाबाशी दी; किसी ने मुझे महान पर्यटक कहा, किसी ने मुझे साहसी अभियात्री, किंतु ऐसे लोग कम ही थे जो यह जानना चाहते थे कि इन पर्यटनों से मैंने क्या पाया?”
दिलीप कुमार बनर्जी के श्ब्दों में- “इस पुस्तक में जिस मौनी बाबा की सनसनीखेज यात्रा का वर्णन है, उसका जन्म कलकत्ता में होने पर भी वह भारतवासी नहीं, विश्ववासी है। धरती की दैनिक व वार्षिक गति के साथ तालमेल रखते हुए ही मानों बिमल दे भी घूमता रहा है, और अब भी घूम रहा है, पृथ्वी के चारों ओर। चीन, जापान, रूस, यूरोप, अमेरिका, आष्ट्रेलिया आदि देशों का वह निरंतर चक्कर लगा रहा है अब भी। तभी वह भू-पर्यटक है। भ्रमण ही उसका जीवन है, वह थमना नहीं जानता।
इस किताब की कीमत है- 275 रुपये।

सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत

सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत – यह किताब खुशवंत सिंह की आत्मकथा है। खुशवंत सिंह अपनी आत्मकथा लिखने का कारण बताते हुए लिखते हैं – “मैं इस आत्मकथा को कुछ घबराहट के साथ लिखना शुरु कर रहा हूँ। यह निश्चित रूप से मेरी लिखी हुई आखिरी किताब होगी- जीवन की सान्ध्य बेला में मेरी कलम से लिखी अंतिम रचना। मेरे भीतर के लेखक की स्याही तेजी से चुक रही है। मुझमें एक और उपन्यास लिखने की ताकत अब बाकी नहीं; बहुत-सी कहानियाँ अधलिखी पड़ी हैं और मुझमें उन्हें खत्म करने की ऊर्जा अब रही नहीं। मैं उन्नासी साल का हो गया हूँ। यह आत्मकथा भी कहाँ तक लिख पाऊंगा, नहीं जानता। बुढ़ापा मुझ पर सरकता आ रहा है, इस बात का एहसास रोज कोई-न-कोई बात करा देती है। मुझे कभी अपनी याद्दाश्त पर बहुत नाज था। वह अब क्षीण हो रही है। एक समय ऐस थ जब मैं दिल्ली, लन्दन, पेरिस और न्यूयार्क में अपने पुराने मित्रों को टेलीफोन किया करता था। ऐस करते हुए मुझे टेलीफोन डायरी से उनके नम्बर दुबारा देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अब मैं अक्सर खुद अपना नम्बर भी भूल जाता हूँ। हो सकता है जल्दी ही सठियापे में गर्क होकर मैं फोन पर खुद अपने को बुलाने की कोशिश करता नजर आऊँ। मेरी दोनों आँखों में मोतियाबिन्द बढ़ रहा है; साइनस के कारण मुझे सिरदर्द की तकलीफ रहती है। मुझे थोड़ी डायबिटीज भी है और ब्लडप्रेशर की समस्या भी। मेरी प्रोस्टेट ग्रंथि भी बढ़ गई है, कभी-कभी सुबह के समय इस कारण मुझे तनाव महसूस होता है और जवानी का भ्रम पैदा होने लगता है; इसी वजह से कभी मुझे पेशाब करने के लिये ठीक से बटन खोलने का वक्त भी नहीं मिलता। मुझे जल्दी ही प्रोस्टेट को निकलवाना पड़ेगा। पिछले दस साल से मैं आतंकवादी संगठनों की हिटलिस्ट पर हूँ।मेरे घर पर सिपाही पहरा देते हैं और तीन सशस्त्र रक्षक बारी-बारी से जहाँ भी मैं जाता हूँ-टेनिस खेलने, तैरने, पैदल घूमने या पार्टियों में- वहाँ मेरे साथ जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि आतंकवादी मुझे निशाना बना पायेंगे। लेकिन अगर वे ऐसा कर लेंगे, तो मैं उनका शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मुझे बुढ़ापे की तकलीफों से भी निजात दिलायी और बैड पैन में पाखाना करके नर्सों से अपना पेंदा साफ कराने की शर्मिन्दगी से भी।...............................
मैने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसे दूसरे लोग लिखने लायक समझें। इसलिए मेरे मरते और नष्ट होते ही लोग मुझे भुला न दें उसका मेरे पास सिर्फ एक ही तरीका है कि मैं खुद पढ़ने काबिल चीजों के बारे में लिखूँ। मैं बहुत सी ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा हूँ। एक पत्रकार की हैसियत से मैंने ऐसे तमाम व्यक्तियों से साक्षात्कार लिए हैं जिहोंने उन घटनाओं को आकार देने में निर्णायक भूमिका अदा की है। मैं महान व्यक्तियों का प्रशंशक नहीं हूँ। जिन थोड़े बहुत लोगों को मुझे करीब से जानने का मौका मिला, उनमें से किसी के पाँव में दम नहीं था। वे लोग बने हुए, निर्जीव, झूठे और एकदम साधारण थे।“
उनकी जिन्दगी और उनके वक्त की इस दास्तान में ‘थोड़ी सी गप है, कुछ गुदगुदाने की कोशिश है, कुछ मशहूर हस्तियों की चीर-फाड़ और कुछ मनोरंजन’ के साथ बहुत-कुछ जानकारी भी।
इस किताब के पेपरबैक एडिशन की कीमत 195 रुपये है।